मैं विभोर हूँ प्राण !
बंद किये मैंने दरबाजे हारकर,
तभी प्राण , तुम आई मेरे द्वार पर!
दूरी की सारी सीमाएं जीत लीं,
किसी विगह के आकुल मन के गीत ने |
वर्तमान की धरती पर अब पग धरे,
फिर से मेरे भूले हुए अतीत ने |
याद, नयन में सागर फिर तुमने कहा –
‘मेरी सुधि को रखना तनिक सवांर कर !
बंद किये मैंने दरबाजे हारकर
तभी प्राण, तुम आई मेरे द्वार पर !
दिन-जैसा न लगाव रहा है छांह का,
जो समीपता छोड़ साँझ को बढ़ चली |
खड़ी अपरिचय की रेखा पर किन्तु ये
उजली-उजली धुप साँवली पड़ चली |
किन्तु सांध्य-तारा की छाया-कृति बना !
दिया जल रहा खंडर हुई मजार पर !
बंद किये मैंने दरवाजे हारकर,
तभी प्राण, तुम आई मेरे द्वार पर |
– श्रीकृष्ण शर्मा